हिन्दुस्तानी एकेडेमी के तत्वावधान में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर दिनांक 05 जून 2025 को गाँधी सभागार (हिन्दुस्तानी एकेडेमी उ0 प्र0, प्रयागराज) में ‘लोक साहित्य में पर्यावरण’ विषयक संगोष्ठी का आयोजन किया गया । इस अवसर पर एकेडेमी परिसर में अतिथियों द्वारा फलदार वृक्षों का वृक्षारोपण किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ सरस्वती जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ। कार्यक्रम के प्रारम्भ में एकेडेमी के प्रशासनिक अधिकारी गोपालजी पाण्डेय ने आमंत्रित अतिथियों का स्वागत पुष्पगुच्छ, स्मृति चिह्न और शाॅल देकर किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए देवेन्द्र कुमार सिंह (वरिष्ठ साहित्यकार, वाराणसी) ने कहा कि ‘ लोक साहित्य में पर्यावरण जैसे सर्वभूतों में ईश्वर की व्याप्ति है इसी तरह सर्वभूतों में लोक और लोक लोकसंस्कृति की व्याप्ति है किंतु पर्यावरण द्वारा लोक का संतुलन किया जाता है। लेकिन वर्तमान में लोक द्वारा, पर्यावरण को असंतुलित किया जा रहा है। हिंदी प्रदेशों में लोक साहित्य में यथा – मैथिली, मगधी, भोजपुरी, ब्रज, बुंदेलखंडी आदि लोक साहित्य पर्यावरण संतुलन के लिए निरंतर दिशा निर्देश देता रहा है।’ सम्मानित वक्ता के रूप में डाॅ. वीरेन्द्र निर्झर (पूर्व अध्यक्ष हिन्दी विभाग, सेवा सदन कालेज बुरहानपुर, म0प्र0) ने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘ लोकजीवन में पर्यावरण की यह प्रभाविता गहरे तक समाई हुई है। प्रकृति लोक जीवन की प्राकृतिका एक घटक बन गई है और लोक साहित्य में अपने विविध रूप रंगों में एक जीवन सहचारी की तरह अपने को व्याप्त करती है। आज के समय में समाज और संस्कृति की निरंतर हसोन्मुखता जीवन के संतुलन को बिगाड़ रही है। पर्यावरण का संकट उत्पन्न हो रहा है। अपितु विश्व कल्याण के लिए पर्यावरण की संरक्षा आवश्यक है। इस हेतु पुनः लोक संस्कृति, पर्यावरण और मानव जीवन में एकात्मक भाव की ओर लौटना होगा।’ सम्मानित वक्ता रविनंदन सिंह (वरिष्ठ साहित्यकार, प्रयागराज) ने ‘लोक साहित्य में पर्यावरण’ विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ‘लोक साहित्य मनुष्य का आदिम राग है। लोक जीवन का पर्यावरण के साथ अटूट रिश्ता है। आज के सन्दर्भ में लोक संस्कृति के साथ पर्यावरण की सम्पृक्तता विशेष महत्त्व रखती है, क्योंकि आज महानगरीकरण के निर्मम उपभोक्ता भाव ने मनुष्य को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। वह प्रकृति के साथ सन्तुलन और साहचर्य न रखने के कारण जीवन की मूल आवश्यकताओं-हवा और पानी की शुद्धता से वंचित हो रहा है। हमारी लोक की वृहत्तर चेतना ही इस संकट की घड़ी में प्रगति की अंधी रफ्तार के ऊपर लगाम लगा सकती है और सम्पूर्ण जीवन के साथ जुड़कर पर्यावरण को सार्थक और जीवंत बना सकती है।’ डाॅ. सत्यप्रिय पाण्डेय (आचार्य हिन्दी विभाग, श्यामलाल कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली) ने कहा कि ‘पर्यावरण और प्रकृति लोक साहित्य का प्राण तत्व रहा है। लोक साहित्य के विविध रूपों में चाहे वह लोक गीत हो, लोक कथाएं हों, कहावतें हों सबमें पर्यावरण के प्रति रागात्मकता और संरक्षण का भाव विद्यमान रहा है। लोक साहित्य प्रकृति के प्रति सदैव समर्पित रहा है। वह उसका संरक्षण करता रहा है, वृक्षों, वनस्पतियों में देवत्व की स्थापना का साहित्य है लोक साहित्य। इस रूप में वह वैदिक साहित्य की परंपरा के संवर्धन का साहित्य कहा जा सकता है।’ संगोष्ठी का संचालन डाॅ. नमित कुमार सिंह, (सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद डिग्री कालेज, प्रयागराज) ने तथा कार्यक्रम के अन्त में धन्यवाद ज्ञापन एकेडेमी के प्रशासनिक अधिकारी गोपालजी पाण्डेय ने किया। कार्यक्रम में उपस्थित विद्धानों में रामनरेश तिवारी ‘पिण्डीवासा’, डाॅ. अमिताभ त्रिपाठी, डाॅ. आनंद श्रीवास्तव, पारुल सिंह राठौर, डाॅ. अनिल कुमार सिंह, डाॅ. अरुण कुमार मिश्रा, वजीर खान, अरविन्द कुमार उपाध्याय, राधा शुक्ला सहित शोधार्थी एवं शहर के गणमान्य आदि उपस्थित रहे।
Anveshi India Bureau