इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर ने कहा कि तीनों नए कानून विधायी कपट के अलावा कुछ नहीं है। दंड तो न्याय लिख देने से उसकी तासीर नहीं बदल जाती। यह नया कानून औपनिवेशिक कानून से ज्यादा क्रूर है। जस्टिस गोविंद माथुर शनिवार को सिविल लाइंस स्थित एक होटल में नागरिक समाज, अधिवक्ता मंच और पीयूसीएल की ओर से आयोजित एक परिचर्चा में बोल रहे थे।
इस दौरान उन्होंने नए कानून की काफी खामियां गिनाईं। कहा कि यह कानून पुलिस अधिकारियों के सुझाव पर तैयार किया गया है। यह आम जनता के हित के विपरीत है। कोरोना काल के दौरान बड़ी चतुराई से इसकी पटकथा लिखी गई थी।
जस्टिस गोविंद माथुर ने कहा कि लोकतांत्रिक देश में कानून लोकहित में बनाए जाने चाहिए। तीन नए कानूनों के बारे में कहा जा रहा है कि हम औपनिवेशिक कानूनों से मुक्त हो कर के जनहित की तरफ जा रहे हैं पर क्या सिर्फ नाम बदलने मात्र से इन विधानों का चरित्र बदल गया। क्या एक लोकतांत्रिक देश में आपराधिक मानहानि हमारी संवैधानिक प्रथा में फिट बैठती है। मुझे ये बिलकुल हिचक नहीं है ये कहने में कि पिछले 10 सालों में इमरजेंसी के समय से भी ज़्यादा लोगों को अंदर डाला गया है और ऐसे ही कानून नए कानूनों में भी आगे बढ़ाए गए है। ये कहा गया कि राजद्रोह हटा दिया गया है, लेकिन उसकी जगह देशद्रोह के नाम से उसी कानून को और सख्त बना के प्रस्तुत किया गया है।
कोरोना के समय एक पांच सदस्यीय समिति बनाई गई जिनको 16 सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के पूर्व जजों ने एक लेटर में लिखा कि क्या ऐसे समय में हम आपके समक्ष आ कर के अपनी बात रख पाएंगे। यह समिति पारदर्शी तौर पर काम कर रही है, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। इसीलिए ये समझ आता है कि जिन चीजों पर अध्ययन होना चाहिए था वो नहीं हुआ और इसे लागू कर दिया गया। इन कानूनों पर गौर करेंगे तो 99 फीसदी कानून पहले वाले कानूनों से ही लिए गए हैं।
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