कवि कबीर दास जी का एक पुराना एवं बड़ा प्रचलित दोहा आज मुझे याद आ रहा है , ” निंदक नियरे राखिए , आंगन कुटी छवाय , बिन पानी , साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय ” । यह दोहा प्रचलित तो बहुत है लेकिन इसपर अमल बहुत कम ही करते हैं यानि कोई अपने निंदक को अपने पास नहीं बैठाना चाहता। यही कारण है कि हर व्यक्ति दूसरे की कमी को तो देखता रहता है और उसकी उस कमी को एक बुराई के रूप में सिद्ध करने की कोशिश भी करता है।लेकिन वह अपनी कमियों की ओर नहीं देखता है। इसीलिए समाज में अन्याय , असंतोष , शोषण जैसी बुराइयां बढ़ती जा रही हैं। यह बात लाभग सभी पर लागू होती है। यह बात मुझे आज उस समय समझ में आई जब मेरे एक मित्र ने मुझे अनायास आईना दिखाया।
मैं अब जिन मित्र के बारे में बताने जा रहा हूं उनका नाम डॉ कमलेश तिवारी है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ कमलेश जी देश के जाने माने मनोचिकित्सक हैं। प्रयागराज स्थित उत्तर प्रदेश सरकार की मुख्य मनोविज्ञान शाला के प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत हैं।
हमारी मित्रता बहुत पुरानी नहीं है। इसके बावजूद हम दोनों के बीच संबंध इतने घनिष्ठ बन गए जिससे लगता है कि हमारी मित्रता बरसों पुरानी है। हम जब साथ में बैठते हैं तब इधर उधर की बहुत सी बातें करते हैं। इसी बीच वे कभी कभी अपने अनुभव सुना देते हैं। आज उन्होंने ऐसा एक अनुभव सुनाया जिसे सुनकर मैं स्तब्ध रह गया।
उन्होंने अपने अनुभव को सुनाते हुए बताया कि शहर के एक अमीर व्यक्ति को कहीं से मेरे बारे में पता चला। उन्होंने कहीं से मेरा मोबाइल नंबर लिया और मुझे फोन मिला दिया। उन्होंने मुझसे निवेदन किया कि मेरा लगभग 13 वर्षीय बच्चा है जिसने स्कूल जाना बंद कर दिया है और घर से बाहर भी नहीं निकलता , ऐसे में क्या आप मेरे घर उसे देखने आ सकते हैं ? मैंने उनका पता पूछा और समय लेकर उनके घर पहुंच गया। उनके पुत्र की समस्या को उनके और उनकी पत्नी के द्वारा बड़े ध्यान से सुना। उसके बाद बच्चे से भी बात की और बच्चे के ऊपर कुछ मनोवैज्ञानिक परीक्षण के प्रयोग किए। माता पिता , बच्चे से वार्ता और बच्चे के मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के निचोड़ के आधार पर मैंने उनको समझाया कि इसका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है और यह गंभीर मानसिक समस्या से पीड़ित है। आप सक्षम हैं इसलिए इसे दिल्ली में किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाइए। जब तक दिल्ली ले जाएं तब तक मैं इसकी प्राथमिक चिकित्सा के लिए आपके घर पर सप्ताह में दो तीन दिन आ जाऊंगा। इसकी काउंसलिंग करने की फीस के रूप में आपको पांच सौ रुपए प्रति विजिट देने होंगे। उन्होंने न ही आने के लिए कहा और न ही मना किया। फिर तीन चार महीने बाद उन अमीर महोदय का मेरे पास फोन आया कि आप कृपया मेरे बेटे को घर आकर देख लीजिए। यह सुनकर जब मैंने उनसे पूछा कि अब बेटे का क्या हाल है ? तब उन्होंने कहा कि वैसा ही है। जब मैंने पूछा कि दिल्ली में किसी को दिखाया ? तो वह बोले कि इतना अधिक व्यस्त हूं कि जाने का समय ही नहीं मिल पा रहा है।
जब डाक्टर साहब ने उन अमीर महोदय की यह पूरी कहानी मुझे बताई तो मेरे मन में उन अमीर महोदय के बारे में तरह तरह की बातें कौंधने लगीं कि यह कैसा व्यक्ति है जो अपने एक मात्र पुत्र के लिए इतना लापरवाह और कंजूस है। मैंने उन अमीर महोदय के बारे में अपनी प्रतिक्रिया डाक्टर साहब से व्यक्त भी कर दी। मेरी प्रतिक्रिया सुनकर उन्होंने इससे मिलते जुलते कई और अनुभव मुझे सुना डाले। उन्होंने कहा कि समाज में इस प्रकार के लोग अकेले ये नहीं बल्कि बहुत से हैं। दस बीस सेकंड कुछ सोचने के बाद उन्होंने जो मुझे आईना दिखाया उसे देखकर मुझे समझ में आ गया कि मैं भी लगभग वैसा ही हूं।
हुआ यह था कि चार पांच माह पूर्व एक दिन डॉक्टर साहब हमारे घर पर मुझ से मिलने आए थे। जब मेरा तेरह वर्षीय एक मात्र पौत्र उनके सामने आया तो वे उससे भी बात करने लगे। उससे कुछ देर बात करने के बाद मुझसे बोले कि आपका बच्चा बहुत ब्रिलिएंट है। इस पर मैंने उनसे कहा कि बच्चा ब्रिलिएंट तो है लेकिन इसकी पढ़ाई में रुचि बिल्कुल नहीं है। इस पर वे बोले कि इसकी दो चार बार काउंसलिंग करनी होगी। उन्होंने अपनी ओर से ही कहा कि अभी सर्दी अधिक है। अतः जब सर्दी कम हो जाएगी तो कभी आप इसे लेकर हमारे घर पर आ जाइए और कभी मैं ही आपके घर पर आ जाऊंगा।
इसके बाद मैं भूल गया और समय बीतता गया। वे हमारे घर पर एक दो बार आए भी । उनके साथ चाय भी पी गई। इधर उधर की कुछ बातें भी हुईं। लेकिन मैंने उनसे अपने पौत्र की काउंसलिंग के लिए कभी नहीं कहा। और न ही मैं कभी उनके घर उसे लेकर गया।
उन्हें यह मेरी बड़ी लापरवाही लगी जो सही भी है। इसी लापरवाही की ओर आज उन्होंने मुझे इशारा किया था कि आप भी तो उनमें से एक हैं। उनकी यह बात सुनकर एकबार तो मैं सकपका गया और अंदर ही अंदर झेंपने लगा। अपनी कमी भी समझ में आ गई।
यद्यपि मैं दूसरों की कमियों के बजाय अच्छाइयां देखता हूं।और अपनी कमियां। अपनी कमियों को यथा संभव दूर भी करता रहता हूं। लेकिन इस मामले में चूक हो गई।
उनके इस प्रकार आईना दिखाने के बाद मुझे बहुत अच्छा लगा और अहसास हुआ कि आज के जमाने में भी कोई तो है जो आपकी कमी को आपके मुंह के सामने बताकर उसे दुरुस्त करना चाहता है वरना तो आज हर कोई पीठ पीछे तो खूब बुराई करेगा और सामने मीठी मीठी बातें करेगा।
इसके बाद से मेरे अंदर डॉक्टर साहब के प्रति संबंधों में और घनिष्ठता आ गई।
बाद में जब समाज की इस गंभीर समस्या का कारण उनसे जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि समाज में इस बीमारी के प्रति जागरूकता का बहुत अभाव है। हर किसी को शारीरिक बीमारी तो दिखाई देती है लेकिन मानसिक बीमारी समझ में ही नहीं आती। यही कारण है कि आजकल लोगों में अवसाद की समस्या बढ़ती जा रही है। इसी के चलते आत्महत्या तक हो रही हैं।
उन्होंने कहा कि जागरूकता बढ़ाने में शिक्षण संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। कुछ अच्छे संस्थान अपने यहां काउंसलर रखते भी हैं। लेकिन ऐसी संस्थाओं की संख्या बहुत कम है।
डॉक्टर साहब ने कई इंजीनियरिंग एवं मेडिकल कॉलेजों में काउंसलिंग की है और जागरूकता प्रोग्राम चलाए हैं। इस संबंध में अपने अनुभव सुनाते हुए उन्होंने बताया कि अवेयरनेस प्रोग्राम के बाद कई विद्यार्थी मुझसे अलग से मिलते थे और अपनी मानसिक परेशानियां बताते थे। आप आश्चर्य करेंगे कि उनमें से बहुत से विद्यार्थियों ने आत्महत्या के लिए किए गए प्रयासों तक का भी उल्लेख किया। मैंने उनकी काउंसलिंग कर करके उनका उपचार किया और आज वे सभी मानसिक रूप से स्वस्थ हैं और अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह समस्या केवल विद्यार्थियों में ही नहीं है बल्कि बड़े लोगों तक में है। इन्हीं संस्थानों के कई फैकल्टी एवं स्टाफ मेंबर तक अलग से समय लेकर मुझसे मिलते थे और अपनी मानसिक समस्या बताते थे। उनके भी उपचार किए गए। इसके बहुत से कारण हैं। जिनपर विस्तार से फिर कभी बात होगी।
इसका एक समाधान यह हो सकता है कि सरकार को सभी शिक्षण संस्थानों के लिए काउंसलर रखना अनिवार्य कर देना चाहिए।
अनंत अन्वेषी।