चंपारण, बिहार के रहने वाले अमरेंद्र शर्मा को मुंबई आने पर बिहार के दोनों दिग्गज कलाकारों मनोज बाजपेयी और पंकज त्रिपाठी से खूब स्नेह मिला, हालांकि अभिनय की तरफ उनका रुझान अजय देवगन की पहली फिल्म ‘फूल और कांटे’ देखकर हुआ। अमरेंद्र इन दिनों के व्यस्त कलाकार हैं और नए कलाकारों व तकनीशियनों की मासिक बैठकी ‘अपना अड्डा’ में अक्सर शामिल होते रहते हैं। इस बार इस सीरीज में उनसे ये खास बातचीत।
मेरे पापा रामानंद अध्यापक थे और मम्मी कमलावती देवी गृहणी। मेरे माता-पिता ने हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया। त्यौहार के समय गांव में होने वाले नाटकों का मैं हिस्सा होता। पहली बार ‘लव कुश’ नाटक में भाग लिया तो पापा ने खुद बांस से धनुष और तीर बनाकर दिए मेरे मन में यही था कि किसी तरह से दिल्ली पहुंचना है और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में दाखिला लेना है। 12वीं तक मोतिहारी में पढ़ाई करने के बाद साल 1997 में दिल्ली आ गया। एनएसडी में जाकर पता किया तो बताया गया कि वहां प्रवेश के लिए स्नातक होना जरूरी है।
फिर..?
फिर मैं वापस पटना आ गया और कालिदास रंगालय में करने के लिए दाखिला ले लिया। इसी के साथ मोतिहारी के एमएस कॉलेज ग्रेजुएशन करने लगा। कालिदास रंगालय में ही पंकज त्रिपाठी से मुलाकात हुई। वह उन दिनों विजय तेंदुलकर के नाटक ‘जाति ना पूछो साधु की’ का निर्देशन कर रहे थे। उन्होंने अपने इस नाटक में काम करने का मौका दिया। मेरे करियर का यह पहला पेशेवर नाटक था। मैंने पटना और कोलकाता में बहुत सारे नाटक किए। नाटकों से मेरी कमाई भी बहुत अच्छी होने लगी थी।
स्नातक होने के बाद फिर नहीं गए नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा?
साल 2003 में मैं फिर दिल्ली आया और आते ही साहित्य कला की रिपर्टरी में मेरा चयन हो गया। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए आवेदन किया तो वहां चयन कमेटी में साहित्य कला के निर्देशक सतीश आनंद बैठे थे। उन्होंने कहा कि आप तो पहले से ही नाटकों में अच्छा कर रहे हैं और पैसे भी कमा रहे हैं, दूसरे को आने दीजिए। बस, उनकी वजह से मेरा चयन नहीं हुआ। साल 2007 में मैं मुंबई आ गया।
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मुंबई में तो लंबा संघर्ष रहा आपका?
मुझे पहली फिल्म ‘1971’ मनोज बाजपेयी के साथ मिली थी। सौभाग्यशाली रहा कि मुझे पहली ही फिल्म में मनोज बाजपेयी के साथ काम करने मौका मिला। दो महीने तक मनाली में उनके साथ शूटिंग की लेकिन मैंने उनको कभी अपने गृह जनपद के बारे में बताया नहीं। इसके बाद मुझे मणिरत्नम की फिल्म ‘रावण’ में काम करने का मौका मिला। इस फिल्म में पंकज त्रिपाठी भी थे। इसके बाद मेरा असली संघर्ष शुरू हुआ क्योंकि अब मैं सिर्फ अच्छे किरदार करना चाहता था। अच्छी फिल्में नहीं मिल रही थी तो ‘क्राइम पेट्रोल’ करने लगा और वहां खूब लीड भूमिकाएं कीं।
पंकज त्रिपाठी का किस तरह से सहयोग मिला?
पंकज भैया के साथ मेरे घरेलू संबंध हैं। मुंबई आने के बाद कभी वह मेरे घर आकर खाना खाते थे। कभी हम उनके घर चले जाते थे। उनकी बेटी छोटी थी और मृदुला भाभी स्कूल पढ़ाने जाती थीं तो हम लोग ही उनकी बेटी को संभालते थे। लॉकडाउन के समय जब मैं घर चला गया था तो वह नियमित रूप से फोन करके हमारा हालचाल पूछते थे। मैं गायक भी हूं और उसी दौरान मैंने अप्रवासी मजदूरों पर एक म्यूजिक वीडियो ‘बटोही’ बनाया। पंकज त्रिपाठी के सोशल मीडिया पेज पर इसकी लॉन्चिंग हुई तो ये गाना रातोंरात वायरल हो गया।
और, अपना टर्निंग प्वाइंट किस फिल्म को मानते हैं?
जॉन अब्राहम की फिल्म ‘बाटला हाउस’ के लिए मेरी कास्टिंग विकी सिदाना ने की थी। फिल्म के दोनों पोस्टर पर मुझे जॉन अब्राहम के साथ जगह मिली। होर्डिंग, न्यूजपेपर और मैगजीन में ये पोस्टर देख मुझे खूब फोन आने लगे। मेरा आत्मविश्वास भी बहुत बढ़ गया। इस फिल्म के पोस्टर की वजह से मेरी थोड़ी पहचान बन गई थी। इसके बाद मैंने एक फिल्म ‘भोर’ की, जिसे लोगों की खूब सराहना मिली।
फिल्म ‘जोरम’ का अनुभव कैसा रहा?
शूटिंग के दौरान कलाकार अक्सर अपने किरदार में रहते हैं। मनोज बाजपेयी से इस बार भी ज्यादा संवाद नहीं हुआ। हां, एक दिन जब पैकअप हुआ तो उन्होंने मुझे सामने देख पूछा, मटन खाते हो? मेरे हां कहते ही उन्होंने मुझे इसे बनाने की जिम्मेदारी दे दी। मेरे हाथ का खाना खाकर वह बहुत खुश हुए। ‘जोरम’ में उनको मेरा काम बहुत पसंद आया और उन्होंने ही इस फिल्म के बाद मुझे अपनी फिल्म ‘भैयाजी’ में काम दिलाया। अभी एक और फिल्म ‘हवा सिंह एंडला’ में भी लीड भूमिका कर रहा हूं।