कानून के जानकारों का कहना था कि सैकडों वर्षों के बाद देशवासी यह महसूस करेंगे कि उन्हें लार्ड मैकाले की दंड संहिता से मुक्ति मिली है। अब उन्हेें दंड नहीं न्याय मिलेगा। लेकिन, यह कानून हड़बड़ी में बिना विशेषज्ञों के गहन मंथन और मशविरा के ही लागू कर दिया गया है।
नए आपराधिक कानून में हुए बदलावों को लेकर मंगलवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायविदों ने अपनी बेवाक राय रखी। अमर उजाला कार्यालय में आयोजित संवाद में नई संहिता बीएनएस,बीएनएसएस और बीएसए को विस्तार से परिभाषित किया गया। कानून के जानकारों का कहना था कि पुरानी भारतीय दंड संहिता को बदलकर न्याय संहिता किया जाना स्वागत योग्य है। लेकिन बिना प्रचार-प्रसार के दूरगामी परिणामों को समझे बगैर यह परिवर्तन नए सिरे से समीक्षा की मांग करता है।
कानून के जानकारों का कहना था कि सैकडों वर्षों के बाद देशवासी यह महसूस करेंगे कि उन्हें लार्ड मैकाले की दंड संहिता से मुक्ति मिली है। अब उन्हेें दंड नहीं न्याय मिलेगा। लेकिन, यह कानून हड़बड़ी में बिना विशेषज्ञों के गहन मंथन और मशविरा के ही लागू कर दिया गया है। इससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों और अपराधिक न्याय सिद्धांतों की आत्मा को चोट भी पहुंची है। लिहाजा, इस पर पुर्नविचार और संशोधन की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। वकीलों का मानना है कि बदले गए कानून से न्यायपालिका कमजोर और कार्यपालिका यानी पुलिस मजबूत होगी।
आपराधिक कानून और मौलिक अधिकार का सीधा रिश्ता है। बदले कानून की कई धाराएं मौलिक अधिकारों पर अतिक्रमण करने वाली है। पुलिस हिरासत बढ़ाते हुए उनके समक्ष दिए बयान को साक्ष्य के रूप में ग्राह्य मानना गलत है। – अखिलेश सिंह, पूर्व शासकीय अधिवक्ता, उच्च न्यायालय
नया कानून आपराधिक न्याय सिद्धांतों के विपरीत है। यह कानून लागू नहीं किया गया है नागरिकों पर बोझ की तरह लादा गया है। नए कानून पर न चर्चा हुई न कानूनी विशेषज्ञों की राय ली गई। प्रशासनिक अधिकारियों की मनमर्जी से बने कानून सुप्रीम कोर्ट की विधि व्यवस्था के खिलाफ हैं। गिरफ्तारी के बाद 24 घंटे में मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के बजाए अब पुलिस सीधे 90 दिन तक आरोपी को हिरासत मेें रख सकेगी। जो नागरिकों के मौलिक अधिकार का हनन है। सीपी उपाध्याय, पूर्व सचिव, हाइ्रकोर्ट बार एसाे.
नए कानून में मॉब लिंचिंग के खिलाफ किया गया प्रावधान काबिल-ए- तारीफ है। जुर्माने के बदले समाज सेवा की योजना भी बेहतरीन है। लेकिन, इनका क्रियान्वयन कैसे होगा प्रावधान स्पष्ट नहीं है। धर्मेंद्र सिंह, पूर्व उपाध्यक्ष, हाइ्रकोर्ट बार एसाे.
उच्च न्यायालय से और सर्वोच्च न्यायालय से दंडित होने के बाद समय सीमा में अपील न करने पाने वाले अभियुक्त अब सीधे राज्यपाल और राष्ट्रपति से गुहार लगा सकेंगे।आईपीसी ब्रिटिश कानून था, जो भारतीयों को दंडित करने के लिए बनाया गया था। अब भारतीय न्याय संहिता न्याय की अवधारणा लेकर आई है। नए कानून में महिलाओं को न्याय मिलेगा। – स्वाति अग्रवाल, अधिवक्ता उच्च न्यायालय।
साक्ष्य अधिनियम में इलेक्ट्रानिक साक्ष्य का दायरा बढ़ाया गया है। इससे न्याय प्रक्रिया में तेजी आएगी, लेकिन फोरेंसिक लैब न होना बड़ी मुसीबत है। कानून तभी कामयाब हो सकता है जब उसके क्रियान्वयन की समुचित व्यवस्था हो। – मनु शर्मा, अधिवक्ता उच्च न्यायालय
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