इलाहाबाद विश्वविद्यालय (इविवि) को यूं ही ‘पूरब के ऑक्सफोर्ड’ का दर्जा नहीं मिला। इसके पीछे शिक्षा जगत के उन दिग्गजों की कड़ी मेहनत है, जिन्होंने विषय की सीमाओं को तोड़ नए कीर्तिमान गढ़े और दूसरे विषयों में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय को शिखर तक पहुंचाया।
इन दिनों हर तरफ अंतर्विषयी शिक्षा पर जोर है, जिसकी नींव इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डेढ़ सौ साल पहले रख दी गई थी। इसकी शुरुआत सबसे पहले प्रो. मौलवी मोहम्मद जकाउल्ला ने की थी, जो इविवि में सबसे पहले नियुक्त पांच शिक्षकों में से एक थे। उन्हें एक जुलाई 1872 को प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया था। प्रो. जकाउल्ला उर्दू, अरबी, फारसी के साथ गणित की कक्षाएं भी लिया करते थे। वह गणित की कक्षाएं उर्दू में लिया करते थे।
भौतिकी के प्रो. मेघनाद साहा और संस्कृत विभाग के प्रो. क्षेत्रेश चंद्र चट्टोपाध्याय के प्रयासों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पुरातात्विक अध्ययन की शुरुआत हुई। जंतु विज्ञान के प्रो. दक्षिणा रंजन भट्टाचार्य ने संगीत विभाग की नींव रखी। दर्शनशास्त्र विभाग के प्रो. पीआर नायडू ने शिक्षाशास्त्र विभाग की स्थापना की। इतिहास विभाग के प्रो. बेनी प्रसाद ने राजनीति विज्ञान विभाग की स्थापना की।
अंग्रेजी विभाग के प्रो. रघुपति सहाय (फिराक गोरखपुरी) ने उर्दू में ‘गुले नगमा’ जैसी कालजयी रचना की तो अंग्रेजी विभाग के डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने हिंदी में मधुशाला जैसी ‘अद्वितीय’ रचना की। इविवि के पूर्व शिक्षक प्रो. एके श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कीर्तिस्तंभ’ में लिखा है कि ऐसे विद्वानों की वजह से विश्व के अकादमिक जगत ने इविवि को ‘इलाहाबाद स्कूल ऑफ हिस्ट्री’, ‘इलाहाबाद स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स’, ‘इलाहाबाद स्कूल ऑफ फिलाॅसफी’ जैसे सम्मान दिए।
प्रो. धर ने इविवि को दान कर दी थी अपनी संपत्ति
नोबल पुरस्कार चयन समिति में शामिल रहे प्रो. बावा करतार सिंह
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