प्रयागराज। सेलीब्रेटिंग नौटंकी महोत्सव की छठवीं संध्या को उ म क्षे सांस्कृतिक केन्द्र के सभागार में प्रेमचंद की अमर यथार्थवादी कहानी ‘कफ़न’ का मंचन हुआ।
इस प्रस्तुति ने दर्शकों को उद्वेलित कर दिया। कफन प्रेमचंद की बेहद मार्मिक यथार्थवादी कहानी है जिसे ‘दलितों के जीवन- संघर्ष और यातना की मर्म कथा’ कहा जाता है। स्वर्ग रंगमण्डल द्वारा प्रस्तुत इस कहानी का सफल नाट्य मंचन लोक कलाविद् अतुल यदुवंशी ने किया।
यह कहानी घीसू-माधव जैसे अकर्मण्य बाप-बेटे पर केंद्रित है जो कामचोर तो हैं ही, निकम्मे भी हैं। माधव की पत्नी बुधिया मेहनत-मजदूरी करती है तो इन दोनों का पेट भरता है। यह खुद से कुछ करना ही नहीं चाहते। गरीबी है, अपनी जमीन नहीं है। घर में कामकाजी बुधिया आ गई है तो फिर इन्हें कुछ करने की या सोचने की जरूरत ही नहीं रह जाती। प्रेमचंद ने इस कहानी के जरिए जहां असमान व्यवस्था को प्रश्नांकित किया है जो इस भयावह दरिद्रता का जिम्मेदार है, तो वहीं इन दोनों चरित्रों के बहाने अकर्मण्य जीवन जीने वालों पर चोट की है। घीसू-माधव का यही दर्शन है कि जब मेहनत करके भी पेट नहीं भरता तो यह निठल्लापन ही ठीक है। फिर तो कोई उन्हें मारे-पिटे, गाली दे, कोई फर्क नहीं पड़ता। कहानी का सबसे हृदय विदारक दृश्य वह है जब बुधिया प्रसव पीड़ा से छटपटा रही है और यह दोनों निकम्मे अलाव में आलू भुनने और खाने में लगे हैं। घीसू ससुर होने का बहाना कर बुधिया को नहीं देखता, माधव को यह डर है कि वह देखने गया तो उसका आलू उसका बाप खा जायेगा।
प्रस्तुति कहानी की संवेदना को विस्तार देती हुई उसके निहित अर्थ को अनेक स्तरों पर उठाती है। सबसे अधिक प्रभावित करती है निर्देशकीय कल्पनाशीलता जो मंच निर्माण में दिखती है। मंच का एक हिस्सा उस झोपड़ी का है जिसमें प्रसव वेदना से छटपटाती बुधिया है। झोपड़ी के बाहर द्वार का हिस्सा है जहां घीसू-माधव अलाव जला कर तापते हैं और उसमें पक रहे आलू की निगरानी करते हैं। यह दोनों फटेहाल, दीनता के मूर्ति लगते, जहां अपने व्यवहार से खीझ पैदा करते हैं वहीं करुणा से भर देते हैं। उधर झोपड़ी में बुधिया का चीखना, पैर पटकना दर्शकों को आंदोलित कर देता है। इस तरह चीखकर छटपटा कर बुधिया मर जाती है, पर यह बाप बेटे अपनी जगह से हिलते तक नहीं। तकलीफ दोनों को उसके मरने से यह सोचकर होती है कि उनका पेट अब कौन भरेगा, किंतु यह सोचकर वे खुश हो जाते हैं कि अब लोग उसकी क्रिया के निमित्त कफन खरीदने के लिए चंदा देंगे, शेष रस्मों के लिए भी पैसे मिलेंगे और बुधिया जीते जी तो उनका ख्याल रखती थी अब मरने के बाद भी उसने उनका ख्याल रखा है। और यही होता है- घीसू-माधव चंदे के पैसे से कफन लेने बाजार जाते हैं और उसी पैसे से शराब, पूड़ी और मछली उड़ाते हैं। नशे में काफ़ूर हो वे नाच नाचकर कहते हैं- पुन्य पायेगी बुधिया बहुत ही बहुत, मुक्त हो गयी बुधिया जी के जंजाल से, मुक्त हो गयी बुधिया दुनिया के मायाजाल से, मुक्त हो गयी बुधिया गरीबी के बवाल से।
प्रस्तुति में विदूषक- धीरज अग्रवाल तथा रौशन पाण्डेय, घीसू- सचिन केसरवानी, माधो- आर्यन मोहिले, बुधिया- शान्ता सिंह, ठाकुर- नीरज अग्रवाल, नर्तकी- सोनाली चक्रवर्ती, दायी- शिवानी कश्यप, लठैत- साहिल केसरवानी, रामपलट- राजेन्द्र कुमार, पागल- शिव प्रकाश श्रीवास्तव तथा ग्रामीण- अशोक कुमार, बसन्त लाल त्यागी, राम सूरत, श्रद्धा देशपाण्डे, कु सोनी, प्रेक्षा देशपाण्डे, शुभम श्रीवास्तव, मनोज कुमार एवं कमलेश चन्द्र यादव, संगीत पक्ष- दिलीप कुमार गुलशन, मो साजिद एवं नगीना, रूप सज्जा- मो हमीद, मंच निर्माण- सन्त लाल पटेल, सार्थक सारश्वत एवं अद्वितीय, प्रकाश निर्देशन- सुजॉय घोषाल, मूल कथा- मुंशी प्रेमचन्द, नौटंकी रूपान्तर- राजकुमार श्रीवास्तव तथा परिकल्पना एवं निर्देशन- अतुल यदुवंशी।
Anveshi India Bureau